Tuesday, February 19, 2008

मुंबई घटनाक्रमः विकास के वर्तमान मॉडल का संकट

मुंबई में जो भी हो रहा है ऐसा नहीं कि राज ठाकरे नहीं होते तो ये नहीं होता. परिस्थितियां नेता 'पैदा' करती हैं. 'नेता' परिस्थितियां पैदा नहीं करते.

हां नेता किसी प्रक्रिया को तेज या धीमा करने में एक भूमिका निभा सकते हैं. इस पूरे मुद्दे को रजा ठाकरे पर फोकस करने से इस समस्य की जड़ों में नहीं जाया जा सकता, ना ही इसे समझा जा सकता है और नाही परिवर्तन की राजनीति को मजबूत किया जा सकता है.

विचारधारा यानी वर्ग संघर्ष (क्लास पॉलीटिक्स) के कमजोर होने से पहले धर्म के नाम पर लोगों को विभाजित करने की राजनीति हुई. फिर जाति आई और अब क्षेत्र (एथनिसिटी) के आधार पर लोग विभाजित किए जा रहे हैं.

इससे विकास के वर्तमान (रोजगार विहीन विकास) के प्रति सही समझ पैदा नहीं हो पा रही है. मीडिया भी पूरी राजनीति को व्यक्तियों पर केंद्रित करने में बड़ी भूमिका निभा रहा है और इस तरह के विभाजन को चटपटा बनाने के लिए इसे गलत ढंग से 'बिहारी या पूरबियों' के खिलाफ प्रोजेक्ट कर इस तरह के एथनिक डिवाइड को हवा दे रहा है.

इस दौर में कुछ नेता भड़काऊ बयान देकर नेशनल एजेंडा में आ जाते हैं और मीडिया के मध्यम से ये सारी राजनीति होती है. मुंबई में जो भी हो रहा है वो विकास के वर्तमान मॉडल का संकट है.

ये मुंबई का ही मामला नहीं हैं. ये दिल्ली में भी है और लगभग सभी नगरों और महानगरों में होने जा रहा है. आज नहीं तो कल होगा.

कृषि से मैनपावर सरप्लस हो रही है और हमेशा से ही नगर इन्हें कुछ न कुछ काम देते रहें हैं. और नए विकास के मॉडल में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर डिक्लाईन पर है जो रोजगार या काम पैदा करता था.

विकास के मौजूदा मॉडल में जो रोजगार या काम पैदा हो रहा है उसके लिए जो स्किल्स चाहिये वो गांवों से आने वाले गरीब के पास नहीं होती.

कृषि संकट में है. किसान आत्महत्या कर रहे हैं और गांव के गरीब को नगरों में भी काम नहीं मिल रहा है.

साईंनाथ ने सही कहा है कि पहले ये गरीब गांव में खेती करते थे और बीच-बीच में नगरों में आकर थोड़ा पैसा कमाकर फिर दूसरी फसल के लिए गांव चला जाता था.

गांव में ये किसान होता था और शहर आकर मजदूर हो जाता था. पर अब ये ना किसान रह गया है ना ही मजदूर.

नए विकास के मॉडल में जो व्यवस्था उभर रही है उसमें तो लगता है कि ये सिस्टम से बाहर हो रहा है. अब ये उस शोषण के लायक भी नहीं जो औद्योगिक समाज में होता था. सिस्टम के बाहर होगा तो कहां जाएगा ?

विकास के इस मॉडल में शहर आने वाले गरीब को रोजगार तो दूर, काम भी नहीं मिल रहा है. लोकल गरीबों को भी काम नहीं मिल रहा है.
साईंनाथ ने अपने एक लेख में कहा है कि गरीब को गरीब से लड़ाया जा रहा है. इसका संबंध 'बिहारी' या उत्तर प्रदेश के 'भैया' से नहीं है. इसका संबंध नगरों में काम और रोजगार के अवसर सीमित होने से है.

अंत में....

सीपीआई के नेता डांगे कहते थे कि
ये गरीब नहीं, ये सर्वहारा हैं. गरीब कहकर इनका अपमान ना करो.

1 comment:

Anonymous said...

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उमेश चतुर्वेदी